एक कविता ..उस नपुंशक समाज के नाम जो मूकदर्शक बना रहा , उस २३ वर्षीय लड़की को जिन्दा लाश बनते हुए बस देखता रहा, और दूसरे दिन तख्तियां लेकर चल पड़ा विरोध का स्वर बुलंद करने .. जंतर-मंतर..
वो चिल्ला रही है/
रो रही है/ऐसा लगता है
किसी की आबरू फिर लूट रही है..
किसी की दुनिया फिर उजड रही है ..
जंगल है बहुत.. थोड़ा पीछे/
आओ जल्दी जल्दी हम टहनियाँ तोडें..
वो चिल्ला रही है..
हमें जल्द पत्ते तोड़ने होंगे
लकड़ी के छाल निकालने होंगे..
देखो वो और जोर से चिल्ला रही है..
लगता है उसकी अंतड़ियों तक को नोच लेंगे वहशी..
उफ़ जल्दी करो ..
जल्दी करो..
जल्दी करो .
हमें जल्द ढालने होंगे ये छाल, ये पत्ते, मशीनों में..
और बनाने होंगे बहुत सारे अखबारी कागज..
कल खूब बिक्री होनी है इन अख़बारों की
और उन लकडियों से बनाने हैं, ढेरो तख्तियां
जिन्हें लेकर नपुंसक समाज
कल जंतर मंतर पर धरना देगा
विरोध में!! ..
विरोध में??
विरोध में!!???
किसके विरोध में?
उसे भी नहीं पता -
उन वहसी दरिंदों के विरोध में ?
उन तमाशबीनों के विरोध में जो देखती रही है अबतक चुप चाप /
सुनती रही है ये शोर??
या खुद के विरोध में ???
जिन्हें सिर्फ विरोध करना आता है
पर युद्ध करना नहीं आता..
जो योद्धा नहीं है..
जो बस तमाशबीन हैं जिन्हें टिकटें लेकर
सिर्फ युद्ध देखने में मजा आता है
___मारो..मारो मार डालो शाले को---
कहने में बस मजा भर आता है..
बाहर से तालियाँ बजाने में इन्हें मजा आता है..
देखो- कितना गले का नस बाहर निकल आ रहा है
इनके विरोध स्वर में , कितनी जान है इनके विरोध में
कि इनका गला "टक-टक" कर रहा है..
गिरगिटों की तरह..
कुत्ते नोचते रहेंगे मांस
और गिरगिट बस करते रहेंगे विरोध
जंतर-मंतर पर ..
राँची में , दिल्ली में !
Sir,
ReplyDeleteYou have shown the real picture of the society in which we are also included through this Poem.......
Salute to your Creativity...