Monday, February 6, 2012

अभी पिछले दिनों मैं २-४ फ़रवरी सेंट्रल यूनिवर्सिटी, ब्राम्बे में था, एक International Conference का हिस्सा बन कर..टॉपिक थी: Text,Culture and Performance: Postcolonial Issues . इस इंटरनेशनल कोन्फेरेन्स में वयस्था वाकई इंटरनेशनल लेवल की थी (thanks to organiser Dr. B.P.Sinha), पर देश -विदेश से आये प्रतिभागियों ( कुछ एक को छोड़ कर) कि सोच बिलकुल लोकल... वही छेत्रवाद, बंगाली बंधु एक साथ , बिहारी एक साथ, झारखंडी एक साथ, नोर्थ-इस्ट एक साथ , दिल्ली से आये मद में इतराती टोली एक साथ ...विदेश से आये विदेशी एक साथ , फिर भी साथ-साथ कोई नहीं... Post-colonial जैसे मॉडर्न टॉपिक पे बहस करते हुए भी हम बहुत बैकवर्ड दिखे..
एक दूसरी चीज जो चुभने वाली थी , वह जेएनयू या फिर दिल्ली युनिवेर्सिटी वालों की बौडी लैंग्वेज थी..झूठे दंभ में सडांध मारती. उनके पपेर्स में उतना दम नहीं दिखा, जितना उन्होंने अपनी हेकड़ी में दिखाई. . फ़ाल्स अक्सेंट में सिर्फ अंग्रेजी बोल भर लेना काफी नहीं है..उनकी टोली मुझे टी एस  इलियट कि " hollowmen"  जैसी दिखी..अंदर से बिलकुल खोखला ..
दिल्ली में बैठ कर एक कुनबा बनाकर पूरे देश में अपने आप को विद्वान कि तरह परोसे जाने कि कवायद अच्छी है , पर इन कुनबों के मार्फ़त शिक्षा का व्यापारीकरण ठीक नहीं. मैं बगैर  IACLALS ( Indian assocition for Commonwealth Litearature and Language Studies)  की एक शीर्षस्थ पदाधिकारी का नाम लिए , इस संस्था की उस प्रयास की भ्रत्सना करता हूँ, जो छोटे जगहों से जुड़े लोगों की मासूमियत पर प्रहार करती है. इस कोन्फेरेन्स के दौरान IACLALS की एक पदाधिकारी ने कई एस्कोलार्स को पेपर पढ़ने से मन कर दिया , क्योंकि उन्होंने  IACLALS की सदयस्ता शुल्क नहीं दी थी , जबकि इस कोन्फेरेन्स का हिस्सा होने के लिए सेन्ट्रल युनिवेर्सिटी ने पहले से शुल्क ले रखा था. जब बात सेन्ट्रल युनिवेर्सिटी के पदाधिकारियों तक पहुंची, उन्होंने दिल्ली से पहुंची  IACLALS  टीम कि भरपूर भर्त्सना की . आप एक तरफ पोस्ट-कोलोनिअल जैसे टॉपिक पर चर्चा करते हैं और मानसिकता , वही जस की तस .आप महानगरों से आते हैं , जहाँ सपने बेचे जाते हैं , पर आप उन सतरंगी सपनो पे सवार होकर हम जैसे छोटे कस्बों में माँ सरस्वती कि सेवा में लगे लोगों कि आँखों में धुल न झोकें. इस से आपकी इमेज खराब होती है. उस से कष्टकर ये होता है कि अब हम किधर जाएँ? जिन्हें हमने अब तक अपने प्रतिमान मान रखा था , वो तो खोखला निकला.
एक और चौंकाने वाली बात ये थी कि विदेशों से आये हुए एक्सपर्ट भी attitude में बिलकुल लोकल ही निकले. वो चीजों को इतना पर्सनालाईज़ और सुब्जेक्टिव नजरिये से देख रहे थे कि मुझे ताजूब हो रहा था कि कहीं हम, अभी भी उनकी बसाई गयी " कोलोनी " का हिस्सा तो नहीं. जब मैंने स्टोक्ली करमैकेल को कोट किया "
The West with its guns and its power and its might came into Africa, Asia, Latin America and the USA and raped it. And while they raped it they used beautiful terms. They told the Indians ‘we’re civilizing you, and we’re taming the West. And if you won’t be civilized, we’ll kill you.’ So, they committed genocide and stole the land, and put the Indians on reservations, and they said that they had civilized the country.
मेरे session  के चेअरमन Mr. Paul Sharrad ( University of Wollongong, Australia) की भौएँ चढ़ते मैंने देखीं . मेरा पेपर कल्चरल पाइरेसी पर था. उन्होंने इसे पर्सनालायिज़ कर लिया. मेरे पेपर के बाद मुझसे बहस भी हुई. ये एक अच्छी पहल थी. पर बुरा ये लगा कि जब वे बाहर लंच में मिले, मेरे दो- चार बार टोकने के बावजूद भी मेरी तरफ देखा तक नहीं. चोट गहरी लगी थी. हमारे २५० सालों कि गुलामी से भी ज्यादा चोटिल वो दिख रहे थे. पर मि. पौल , मैं आपके खिलाफ नहीं था. मैं तो उस दर्द का हमदर्द था जो भारत जैसे मुल्क में रहने वालों ने लोगों ने सहा है. भारत कि अपनी तहजीब रही है बाहर से आये हुए मेहमानों कि इज्ज़त-आफजाई में कोई भी कसर हम नहीं छोड़ते. मेरी  भी मकसद आपको ठेस पहुँचाने की नहीं थी, पर आप इतने तंगदिल निकलेंगे , सोचा न था.  
कुल मिला कर इस इंटरनेशनल कोन्फेरेन्स कि कंडीशन बिलकुल लोकल ही लग रही थी. मैं एक बहुत अच्छे निष्कर्ष पे पहुँच पाया - विद्वान चाहे कहीं का भी हो, चमड़ी चाहे गोरी हो या काली हो- सोच बिलकुल अपने तक ही  सिमटा रहता है. 
दूसरा  निष्कर्ष ये कि अगर यूजीसी प्रोमोशन के लिए ऐसे सेमिनार/ कोन्फेरेन्स की जरुरत को खत्म कर दे तो शायद इस कोन्फेरेन्स में जुटे "विशाल" १५० लोगों का जमावड़ा भी १०- १५ तक सिमट जाये.  
पर अंत में मैं अपने गुरुदेव डॉ. बी पी. सिन्हा जी को थैंक्स देना चाहता हूँ, जिन्होंने मैनेजमेंट का लेवल वर्ल्ड - क्लास रखा था और जिनकी टीम ने अपने होस्पितालिटी से सबका मन मोह रखा था, "दिल्ली वालों" का भी..